मजदूरों का दर्द: लॉकडाउन के चलते गवाई नौकरी, जैसे तैसे पहुँचे घर, कहा मरेंगे तो अपनों के बीच

अगर मरना ही है तो परदेस में क्यों मरें…अपनों के बीच मरें.. कोरोना तो बाद में मारेगा… उससे पहले भूख जान ले लेगी… यह दर्द है उन मजदूरों का जो कभी ट्रक में बैठकर तो कभी पैदल चलकर अपने घर जा रहे हैं। कई मजदूर साइकिल से अपने घर जा रहे हैं। पूर्वांचल और बिहार के कई मजदूर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली से रविवार को आगरा पहुंचे थे।  इनके पत्नी और बच्चे साथ में है। कह रहे हैं कोरोना पूरी तरह समाप्त हो जाए, तभी लौटेंगे घर से। घर में दो रोटी तो मिल ही जाएगी।

पढ़ें लॉकडाउन के मारे ऐसे ही मजबूर लोगों की कहानी…

एक बार का वेतन भी नहीं बना था कि लॉकडाउन हो गया। जो कुछ घर से लेकर गए, वह भी खत्म हो गया। खाने तक के लाले हो गए तो पैदल ही घरों को चल पड़े। कोई 500 तो कोई हजार किलोमीटर पैदल चलकर घर पहुंचा। मुसीबतें यहां भी कम न हुईं, दिशानिर्देशों के अनुसार 14 दिन के लिए घर से दूर क्वारंटीन होना पड़ा। किसी ने खेत में मड़ैया बनाकर दिन गुजारे तो किसी ने गांव के बाहर किसी स्कूल में।

एक साल से जयपुर में प्लाई बोर्ड फैक्ट्री में काम करता था। लॉकडाउन के बाद कंपनी बंद हो गई। एक सप्ताह बाद खाने पीने की परेशानी होने लगी। साथियों के साथ यहां से निकलने की तैयारी कर ली। कोई वाहन न मिलने के कारण पूरा एक दिन पैदल चले। अगले दिन कुछ दूरी ट्रक पर बैठकर तय की। इसके बाद फिर पैदल चले। रास्ते में खाने का भी कोई इंतजाम नहीं था, केवल बिस्किट खाकर और पानी पीकर सफर तय किया। पांच दिन बाद शाम सात बजे गांव पहुंचा। सूचना मिलते ही गांव के लोग लाठी-डंडा लेकर घर आ गए। गांव के बाहर जाने को कहने लगे। इसके बाद पुलिस ने गांव के बाहर स्कूल में 14 दिन के लिए क्वारंटीन कर दिया। अब घर में हूं। घर के कामों में हाथ बंटा रहा हूं।

पुणे में मोटर पार्ट्स बनने की फैक्ट्री में काम करने 20 मार्च को गया था। काम मिल भी नहीं पाया था कि लॉकडाउन हो गया। घर आने का कोई साधन नहीं था। किसी तरह से लगभग एक माह तक वहीं पर समय काटा। जेब में पैसे भी नहीं बचे। दो दिन जब खाने का कोई इंतजाम नहीं हुआ तो पैदल ही घर के लिए निकल पड़ा। 500 किलोमीटर पैदल सफर तय किया। कुछ वाहनों की भी मदद ली। 10 दिन में गांव पहुंच पाया। परिवार के लोगों की सुरक्षा के लिए खुद ही गांव के बाहर उपस्वास्थ्य केंद्र में क्वारंटीन हो गया। गांव के लोग गेट से ही मिलकर लौट जाते हैं। घर से ही खाना आता है। अभी तक अपने परिजनों से ठीक से मिल भी नहीं पाया हूं।

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