मजदूरों की आंखों की भाव-भंगिमाएं तो उनकी बेबसी बयां कर ही रही हैं, लेकिन बच्चों को देखकर हर कोई कह रहा था कि किसी के जीवन में ऐसा संकट दोबारा न आए। समस्तीपुर के रहने वाली बीना अपने पति और दो छोटे-छोटे बच्चों के साथ यमुनानगर पहुंची है। महिला जरूरी सामान को लिए हुए हैं तो उसकी पांच साल की मासूम बेटी अपनी ही दो साल की छोटी बहन को लेकर साथ-साथ चल रही था। बच्चों को देखकर लोग अनायास ही कहने लगे, देखे इसे कहते मजबूरी। जिस उम्र में बच्चे गोद में खेलते हैं उस उम्र में ऐसी बच्ची अपनी बहन को गोद में लिए हुए सैकड़ों किमी का सफर कर रही है ।
ये उस सिस्टम के लिए एक सबक है, जो प्रवासी मजदूरों की व्यवस्था बेहतर होने का दावा कर रहा है। एक बेबस मजदूर का दर्द क्या होता है, ये कोई मध्यप्रदेश के छत्तरपुर जिला निवासी पप्पू से पूछे। लुधियाना में मजदूरी करते हैं, फिलहाल इंजीनियरिंग कॉलेज के निर्माण में लगे थे। लॉकडाउन में जिंदगी थमी तो काम धंधा भी बंद हो गया।
पचास दिन तक इंतजार के बाद उम्मीद टूटी तो पत्नी कमला और दो बच्चों के साथ 10 दिन पहले पैदल ही चल दिए। धागे से जुड़ी चप्पलें रास्ते में जवाब दे गईं, तो नंगे पैर चले। दोपहरी में लोग घरों में कैद थे, तब ये परिवार नंगे पैर तपती सड़क पर दुश्वारियां झेल रहा था। तीन साल की बच्ची के पैर सड़क पर जलते तो कमला कुछ देर के लिए गोद लेतीं, लेकिन कब तक, खुद भी थकी थी। कुछ कदम बाद मजबूरी में बेटी को नीचे उतारना पड़ता।
रास्ते में प्यास से हलक सूखे तो उसने एक हाथ में सामान का कट्टा और गोद में एक साल की दूसरी बेटी को उठा लिया। पैदल आने पर सवाल हुआ, तो बेबस आंखों से निहारा। बोले, पैसे होते तो चप्पल खरीद लेते। रास्ते में दयालु लोग खाना देते हैं। करीब दो सौ किमी की पैदल दूरी तय कर यमुनानगर में दाखिल हुए, लेकिन यहां भी बेबसी ही हाथ लगी। शाम तक कलानौर बॉर्डर पहुंचे, लेकिन यूपी में एंट्री नहीं करने दी गई।