- कोरोना की कोई दवा या टीका न होने के कारण महामारी से स्वस्थ हो चुके मरीजों के खून का प्लाज्मा इस्तेमाल करने की दुनिया में होड़ मच गई है।
- इसका लाभ उठाकर कई बायोटेक कंपनियां मुफ्त का प्लाज्मा लाखों रुपए में बेच रही हैं।
- दरअसल, प्लाज्मा में मौजूद एंटीबॉडी से महामारी के कई गंभीर रोगी उभर चुके हैं।
नई दिल्ली
देशभर में प्लाज्मा थेरपी चर्चा का विषय बन चुकी है। अब तक दावा किया जा रहा है कि कोरोना वायरस से पीड़ित मरीजों पर इस थेरपी का असर हो रहा है। इसे इलाज के तौर पर देखा जाने लगा। जहां भारत मेंं एक मरीज स्वस्थ हुआ है तो वही एक मरीज की थेरेपी केेेे बाद मौत भी हो गईं थी जिसको लेकर स्वास्थ्य मंत्राालय भी कशमकश का शिकार है।
कैसे काम करती है प्लाज़्मा थेरेपी?
ये थेरेपी गंभीर और ख़तनाक स्थिति में पहुंच चुके मामलों में काम करती है। इसमें कोरोना वायरस से उबर चुके मरीज़ से एंटीबॉडीज़ ली जाती हैं और उन्हें बीमारी व्यक्ति के शरीर में डाला जाता है। जिससे शरीर की इम्यूनिटी को नई ताक़त मिलती है और वह इस बीमारी से लड़ पाती है।
न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कई वैश्विक कंपनियां रक्त के नमूने को लैब और जांच करने वाली कंपनियों को मुंहमांगी कीमत पर बेच रही हैं। कैलीफोर्निया की कैंटर बायोकनेक्ट ने खून की एक बूंद 26600 रुपए से तीन लाख चार हजार रुपए तक में बेची है।
भारतीय कंपनी एडवी केमिकल ने एक नमूने के 50 हजार डॉलर (तीन लाख 80 हजार रुपए) तक वसूले हैं। ब्रिटेन की स्कॉटिश कंपनी टिश्यू सॉल्यूशंस को एक ब्लड सैंपल के लिए 70 हजार रुपए लिए हैं। प्लाज्मा में एंटीबॉडी की मात्रा जितनी ज्यादा होगी, उसकी कीमत उतनी ज्यादा है।
ब्रिटिश जांच कंपनी मोलोजिक के चिकित्सा निदेशक डॉ. जोए फिचेट ने कहा कि उन्होंने इतनी ज्यादा कीमत कभी नहीं देखी। रक्त का नमूना देने वाले भी इससे हैरान हैं। कोरोना से उबर चुकीं वाशिंगटन स्टेट की एलेसिया जेनकिंस को जब पता चला कि कंपनियां इससे लाखों रुपये कमा रही हैं, तो उन्होंने प्लाज्मा देने का इरादा बदल दिया।
कैंटर बायोकनेक्ट 18 मार्च के बाद से सोशल मीडिया के जरिए कोरोना के मरीजों से संपर्क साध रही है और अमेरिका ही नहीं, जापान और यूरोप समेत कई देशों में रक्त के नमूने बेच चुकी है।
क्लीनिकल ट्रायल्स लैबोरेटरी सर्विसेस के लिए रक्त इकट्ठा करने वाले केंद्र के निदेशक केली सैप्सफोर्ड ने कहा कि दवा, वैक्सीन या टेस्ट किट या इलाज की तकनीक ईजाद करने के पहले उसे जांच और परीक्षणों से गुजरना पड़ता है और इसके लिए वायरस के पॉजिटिव नमूनों या स्वस्थ मरीज के प्लाज्मा की जरूरत पड़ती है। दुनिया भर के विषाणु विज्ञानी, शोधकर्ता, दवा कंपनियों में इन नमूनों को पाने की छटपटाहट है, जिसे बायोटेक कंपनियां कमा रही हैं।
क्यों पड़ रही जरूरत
दुनिया भर के वैज्ञानिक बड़े पैमाने पर एंटीबॉडी टेस्ट तैयार करने में जुटे हैं। इससे सरकार और स्वास्थ्य एजेंसियों को अनुमान लगाने में मदद मिलती है कि उनके क्षेत्र में कितने संक्रमित होंगे और लॉकडाउन अभी कितने दिन और जरूरी होगा। मांग बढ़ने के साथ पैदा हुई किल्लत से कंपनियों की चांदी हो गई है।
कंपनियों ने लागत की लाचारी जताई
कैंटर बायोकनेक्ट, एडवी जैसी कंपनियों ने मुनाफा कमाने से इनकार किया है। कैंटर का कहना है कि डोनर को खोजने, सैंपल की जांच, सुरक्षा और उसे लाने-ले जाने में काफी खर्च आता है।
मुंबई की बायोटेक कंपनी एडवी केमिकल का कहना है कि कंपनी ब्लड सैंपल खुद नहीं बेचती, बल्कि वह दूसरी कंपनियों की जरूरतों के लिए मध्यस्थ की भूमिका निभाती है। उसने इतने महंगे दाम पर टिप्पणी से इनकार कर दिया।
आईआईटी मद्रास में बायोटेक विशेषज्ञ प्रोफेसर आरएस वर्मा ने कहा, “यह पूरी तरह से अनैतिक, गैरकानूनी और अनुचित कारोबार है। प्लाज्मा थेरेपी को लेकर अभी कोई बात साबित भी नहीं हो सकी है और उस पर यकीन कर मुनाफा कमाना कतई सही नहीं है।
भारत में भी कंपनियां कमजोर नियम-कानूनों का फायदा उठाकर ऐसा करती हैं। क्लिनिकल ट्रायल के मामले में भी ऐसा देखा गया है।”