लोक डाउन में फंसे मजदूरों की दर्द भरी दास्तां- जिंदा रहने के लिए चुनकर खाना पड़ा झूठा खाना!

  • कोरोना के चलते लगाया यह लॉकडाउन देश के प्रवासी मजदूरों के लिए सबसे मुश्किल रहा है,
  • लॉकडाउन के दौरान घर-परिवार से सैकड़ों मील दूर तेलंगाना में फंसे झारखंड के मेहनतकश मज़दूरों को बेबसी ने ऐसा घेरा कि हौसला भी हांफ उठा।
  • विशेष ट्रेन से लौटे कोडरमा के सिकंदर यादव बताते हैं कि लॉकडाउन उनके लिए नरक से कम नहीं था,

नेशनल डेस्क. देश में कोरोना के चलते अचानक लगाया लॉकडाउन प्रवासी मजदूरों पर सबसे ज्यादा भारी पड़ा है। उन्हें जब ये पता चला की जिन फैक्ट्रियों और काम धंधे से उनकी रोजी-रोटी का जुगाड़ होता था, वह न जाने कितने दिनों के लिए बंद हो गया है, तो वे घर लौटने को छटपटाने लगे।

घर का राशन भी इक्का-दुक्का दिन का बाकी था। जिन ठिकानों में रहते थे उसका किराया भरना नामुमकिन लगा। हाथ में न के बराबर पैसा था। और जिम्मेदारी के नाम पर बीवी बच्चों वाला भरापूरा परिवार था। तो फैसला किया पैदल ही निकल चलते हैं। चलते-चलते पहुंच ही जाएंगे। यहां रहे तो भूखे मरेंगे।,

पढ़िए लोक डाउन में फंसे लोगों की दर्द भरी दास्तां,,

लॉकडाउन के दौरान घर-परिवार से सैकड़ों मील दूर तेलंगाना में फंसे झारखंड के मेहनतकश मज़दूरों को बेबसी ने ऐसा घेरा कि हौसला भी हांफ उठा। सिर्फ जिंदा रहने के लिए क्या कुछ नहीं झेला। कई-कई दिन भूख की मार सहते हुए गुजारे। एक वक्त तो ऐसा भी आया जब पेट की आग बुझाने के लिए सड़क से जूठन उठाकर हलक से उतारना पड़ा। लेकिन जिल्लत भरी इस लाचारी ने यह संकल्प दृढ़ कर दिया कि अब चाहे कुछ भी हो, अपने गांव-घर लौट जाएंगे और फिर कभी लौटकर नहीं आएंगे।

विशेष ट्रेन से लौटे कोडरमा के सिकंदर यादव बताते हैं कि लॉकडाउन उनके लिए नरक से कम नहीं था। वह एक निजी कंपनी के प्रोजेक्ट में इलेक्ट्रिशियन थे। इस प्रोजेक्ट के अलावा निजी तौर पर काम कर वह अपना खर्च चलाते थे। साथ ही थोड़ी बहुत बचत घर भी  भेजते थे। लॉकडाउन के बाद सब कुछ बंद हो गया। वह अपने साथियों के साथ कैंप कार्यालय में रहते थे।

कार्यालय शहर से दूर था और आसपास आबादी भी नहीं थी। पास में न राशन था और न पानी। शुरू में तो कुछ दूर जाकर सूखा राशन लाकर कुछ भी बना लेते थे। लेकिन बाद में वह भी मिलना बंद हो गया। करीब दस दिन चना और पानी से गुजारा करना पड़ा। उनके साथ बिहार के भी कुछ मजदूर थे। वह अभी भी फंसे हैं। अब कुछ भी हो जाए, गांव छोड़ कर नहीं दूसरा शहर नहीं जाएंगे। गांव में कम से कम किसी के घर एक टाइम का 

मेरे कारण परिवार भी टूट गया
हजारीबाग के मुन्नवर अंसारी के आंखे नम थी लेकिन रांची पहुंचने की खुशी थी।  कहते हैं मत पूछिए हुजूर क्या क्या नहीं सहना पड़ा। भोजन छोड़ हर कुछ मिल जाता था। जो लोग वहां के स्थानीय निवासी थे वह शुरू में फोन करते थे और कहते थे कि हमलोग साथ हैं। हर जरूरत पूरी करेंगे, लेकिन जब उनको फोन किया जाता  था तो बात को टाल जाते और लॉक डाउन की मजबूरी बता देते थे। धैर्य रखने को कहा जाता था।

आखिर धैर्य कैसे रखें। मैं ड्राइवर हूं। परिवार चलाने के लिए इतनी दूर निकलना पड़ा। हर दस दिन पर परिवार के लोगों को पैसा भेजता था तो वह दो शाम किसी प्रकार खाना खाते थे। करीब एक महीना से वह कुछ भेज नहीं सके हैं इस कारण उनका परिवार भी भुखमरी के कगार पर है। सोशल मीडिया से अपने जनप्रतिनिधि को खबर पहुंचायी तो जवाब मिला सब ठीक हो जाएगा। लेकिन मदद कहीं से नहीं मिली। देर से ही सही अब रांची पहुंच गए हैं, कुछ घंटो में हजारीबाग में रहेंगे। लगता है जेल से आजादी मिल गयी है।

सब बेरोजगार हो गए, कैसे मदद मिलती
हजारीबाग के लोचन कुमार  अपने दोस्तों के साथ दो तीन साल से एक निजी कंपनी के प्रोजेक्ट में काम कर रहे हैं। कंपनी सड़क का निर्माण कर रही है। तेलंगाना छह माह पहले पहुंचे थे। इस कारण इस शहर और इलाके से वाकिफ भी नहीं थे। सुबह से रात काम करने के कारण अधिक लोगों से जान पहचान नहीं थी। जो भी साथी थे कंपनी में साथ काम करने वाले ही थे।

लॉक डाउन के बाद तो हमें बकाया पैसा मिलना भी बंद हो गया। अफसरों ने कहा कि बाद में एक मुश्त सभी को मिल जाएगा। इसके बाद साइट पर एक भी अधिकारी नहीं आया। अब क्या करते। न पैसे थे और न ही खाने को सामान। कोई होटल भी नहीं खुला था कि उधारी से काम चला पाता। सुबह से भोजन वाली गाड़ी का इंतजार करते। एक -दो कलछुल चावल और सांभर मिल जाता था। शाम को तो भोजन मिलता ही नहीं था। जितने भी साथी थे सभी बेरोजगार।कोई किसी की मदद कैसे कर सकता था।

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