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लौट के बुद्धू घर को आए

चौदह सौ साल पहले मौहम्मद स अ वा ने इंसानी जिंदगी के लिए जिस समाज और कानून की शुरुआत की वह आज के इस साइंस वा टेक्नोलोजी के दौर में भी प्रसांगिक और जरूरी है और इंसानी फितरत के मुताबिक है यह बात साबित हो चुकी है।

और साबित होती रहेगी। विधि आयोग द्वारा सरकार को यौन संबंधों में सहमति की उम्र के लिए जो सुझाव और सिफरिशात की जा रही हैं वह सौलाह से अठ्ठाराह वर्ष है। यानि इस्लामी शरीयत में वयस्क होने की पंद्रह वर्षों के आस पास।

चूंकि इस्लाम के असूल पूरी इंसानियत और कयामत तक के इंसानों की जिंदगी को दृष्टिगत रखकर बने हैं इस लिए हर कसौटी पर इनकी वास्तविकता का लौहा मानना पड़ता है। समान नागरिकता क़ानून बनाने की प्रक्रिया में शादी की उम्र इक्कीस साल करने, सहमति से बिना शादी के संबंध, समान लिंग में आपस में शादी करना यह ऐसे गंभीर समाजिक विकार बनने जा रहे हैं जो पारिवारिक मान्यताओ को बिलकुल तबाह बर्बाद कर देंगे।

इसका हमें अंदाजा करना हो जो जर्मनी में ताज़ा बढ़ते हुए जेनेटिक ट्रांसफॉर्मेशन के रूझान से लगाया जा सकता है कि इंसान अपने शरीर में जानवरो की जीन को शामिल कर कुत्ते, बिल्ली वा भेडिओ की जैसी फितरत पैदा करने की कोशिश कर रहा है। यह सब कुदरती निजाम के खिलाफ़ इंसानी सरकशी है और इसका नतीजा भी इस इंसानी नस्ल को भोगना पड़ेगा और फिर फितरत इंसानी पर आना पड़ेगा।

इंसान अपनी कोशिश तो बहुत करता है नए नए आयाम, नए नए कानून बनाता है। संसद में बहस कर नई व्यवस्था को मील का पत्थर साबित किया जाता हैं मगर इस सब के बावजूद भी आज तक महिलाएं अपने समाज में भी महफूज़ नही है उनको उनका हक़ नहीं मिलता है।

समाज से गरीबी दूर नहीं हो पाई है मुल्क की सारी मिल्कियत कुछ पूंजीपतियो के पास इकठ्ठी होती जा रही है कर्ज़ का बोझ बढ़ता जा रहा है और उसी तेज़ी से असुरक्षा। भारत इससे अछूता नहीं है।

बस एक ही हल है फितरत इंसान को कुदरत के कानूनों को मानना पड़ेगा और उसके सामने अपनी अना का त्याग करना पड़ेगा।

” फजूल जान कर जिस को बुझा दिया तूने।
वही चिराग़ जलेगा तो रोशनी होगी।”

इस तरक्की के दौर में बुधु को घर लौट कर आना ही पड़ेगा तभी इस धरती पर अमन शांति होगी।

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