1857 की वो सच्चाई, जिससे आज भी कई चेहरे शर्मिंदा हो जाएँ!”

ब बहार आई तो कहते हैं तेरा कोई काम नहीं…”

1857 की पहली जंग-ए-आज़ादी को अक्सर इतिहास की किताबों में कुछ नामों और कुछ घटनाओं तक सीमित कर दिया गया है, लेकिन इसके पीछे की हकीकत बहुत गहरी और दर्दनाक है—ख़ासतौर पर मुसलमानों के लिए, जिन्होंने इस आज़ादी की नींव में अपना लहू बहाया।

1757 से शुरू हुआ संघर्ष

1857 की क्रांति कोई अचानक फूटी चिंगारी नहीं थी। इसकी बुनियाद 100 साल पहले ही रख दी गई थी। 1757 में नवाब सिराजुद्दौला ने प्लासी की जंग में अंग्रेज़ों से मुकाबला किया, लेकिन गद्दारी के कारण हार गए। फिर नवाब मीर क़ासिम, नवाब शुजाउद्दौला और शाह आलम ने 1763 में बक्सर की जंग लड़ी।

टीपू सुल्तान, मैसूर का शेर, 1799 में शहीद हुआ, लेकिन अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ डटा रहा। वहीं मौलाना शरियतुल्ला बंगाली, दूदू मियां, और तीतू मीर जैसे बहादुरों ने बंगाल में 1781 से 1840 तक लड़ाइयाँ लड़ीं।

बलिदानों की मिसाल: बलाकोट से लेकर दिल्ली तक

1831 में मौलाना सैयद अहमद शहीद और मौलाना शाह इस्माईल शहीद बलाकोट में शहीद हुए। हजारों मुसलमान उनके साथ थे। ये महज़ लड़ाइयाँ नहीं थीं, ये एक उज्ज्वल भविष्य के लिए दिए गए बलिदान थे।

10 मई 1857: जब मेरठ से क्रांति की चिंगारी फूटी

शहीद वली ख़ान ने अंग्रेज़ अफसर को गोली मारी और बग़ावत की शुरुआत हुई। 17 मई को उन्हें शहीद कर दिया गया। ब्रिटिश रिकॉर्ड में उन्हें “ग़दर का जनक” कहा गया।
उस बग़ावत में शामिल 83 सिपाहियों में से 49 मुसलमान थे।
मेरठ से दिल्ली तक 9 घंटे में मार्च करते हुए इन सिपाहियों ने बहादुर शाह ज़फ़र को नेता बनाया।

मुस्लिम नेतृत्व और बहादुरी

जनरल बख़्त ख़ान को बग़ावत का सेनापति बनाया गया। पंडित नेहरू ने भी उन्हें “इस जंग का दिमाग़” कहा।
अल्लामा फज़ल हक़ खैराबादी ने अंग्रेज़ों के खिलाफ फतवा दिया और कालापानी की सज़ा झेली।
हज़रत हाजी इमदादुल्ला, मौलाना क़ासिम नानौतवी, मौलाना रशीद अहमद गंगोही जैसे कई नाम क्रांति की अगुवाई कर रहे थे।

अंग्रेज़ों की वहशी दरिंदगी

2 लाख मुसलमानों को महज़ 15 दिनों में मार दिया गया।

51 हज़ार उलेमा को शहीद किया गया।

चाँदनी चौक से ख़ैबर तक हर पेड़ पर किसी न किसी उलेमा की लाश लटक रही थी।

जामा मस्जिद को अस्तबल बना दिया गया, औरतों ने कुओं में कूदकर इज़्ज़त बचाई।

बहादुर शाह ज़फ़र के बेटों को गोली मार कर खून पिया गया।

3 लाख क़ुरान जलाए गए ताकि मुसलमानों की रूह तोड़ी जा सके।

इंकलाब में उर्दू का योगदान

उर्दू भाषा इस बग़ावत की आत्मा बन गई थी। अख़बारों, पर्चों, फतवों, घोषणाओं के ज़रिए पूरे देश में संदेश फैलाया गया।
“दहली उर्दू अख़बार”, “पयाम-ए-आज़ादी” जैसे अख़बारों के संपादकों को फाँसी दी गई, लेकिन कलम न रुकी।

1857 की जंग के इतिहास को छुपाया गया, कुर्बानियों को मिटा दिया गया।
मुसलमानों को सिर्फ ग़द्दार बताने की साज़िश हुई, जबकि हक़ीक़त ये है कि उन्होंने हज़ारों की तादाद में जानें दीं, घर छोड़े, बेटों को खोया—लेकिन पीछे नहीं हटे।

आखिर में…

“दुनिया को ये हकीकत बतानी चाहिए कि इंसानियत और लोकतंत्र के झूठे चैंपियन, 200 साल तक इंसानियत का खून बहाने वाले आज अमन और इंसाफ की बातें करते हैं। और मुसलमान, जिन्होंने सबसे ज़्यादा ज़ुल्म सहे, उन्हें ही दहशतगर्द कहा जाता है!

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