देवबंद (सहारनपुर) :
दारुल उलूम देवबंद वैश्विक पटल पर किसी परिचय का मोहताज नहीं। इस्लामी तालीम के लिए देश-दुनिया में परचम बुलंद कर रहे इस मशहूर इदारे की स्थापना 30 मई-1866 को हुई थी। यह अजीम इदारा 150 साल से भी अधिक समय से दुनियाभर में दीन व इस्लामी तालीम की रोशनी बिखेर रहा है।
देवबंद इस्लामिक शिक्षा बढ़ा गढ़ माना जाता है पहले साल देवबंद में शुरू हुए मदरसे का सालाना बजट 304 रूपए था और छात्रों की संख्या थी 21. साल के अंत तक इनकी संख्या 78 तक पहुंच गई. 1896 तक दारुल उलूम से दुनिया भर के 278 विद्वान पढ़कर तैयार हो चुके थे. कहते हैं कि इन्हीं शुरूआती छात्रों ने दारुल उलूम देवबंद की शोहरत दुनिया भर में फैलाई.
दिवंगत हाजी आबिद हुसैन व मौलाना कासिम नानौतवी ने छत्ता वाली मस्जिद स्थित अनार के छोटे से पेड़ के नीचे मदरसा इस्लामी अरबी की बुनियाद रखी। इस छोटे से मकतब ने वट वृक्ष का रूप धारण किया और अब पूरा विश्व इस संस्था को दारुल उलूम देवबंद के नाम से जानता है। दारुल उलूम अपने गर्भ में देश की आजादी की लंबी मुहिम भी संजोए है।
शेखुल हिंद हजरत मौलाना महमूद हसन, मौलाना हुसैन अहमद मदनी, मौलाना उबैदुल्लाह ¨सधी समेत सैकड़ों ऐसे उलमा हैं, जिन्होंने मुल्क की जंग-ए- आजादी में अहम रोल अदा किया। इस मदरसे के कारण यहां से प्रमुख इस्लामिक विचारधारा का प्रवाह हुआ। यह विचारधारा देवबंदी कहलाती है। फतवों के कारण भी चर्चाओं में रहा
दारुल उलूम के कारण देवबंद आज फतवों की नगरी के नाम से भी जाना जाता है। यहां से जारी फतवे दुनियाभर में शरीयत की रोशनी में मुसलमानों की रहनुमाई करते हैं। दारुल उलूम के फतवा विभाग से प्रतिवर्ष लगभग 7-8 हजार फतवे जारी होते हैं।
आज़ादी की लड़ाई में दारुल उलूम ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया
अक्सर अपने फ़तवों के लिए सुर्खियां बटोरने वाले दारुल उलूम का इतिहास अपनी बनती बिगड़ती छवि से बिल्कुल जुदा रहा है. आज़ादी की जंग से लेकर पाकिस्तान बनने के विरोध तक शायद ही देश की राजनीति से जुड़ा कोई मौक़ा हो जब देवबन्द ने खुल कर अपनी राय न जाहिर की हो. ये और बात है कि कई बार उसकी राय और नसीहतें सवालों के घेरे में आ जाती हैं.
देवबन्द पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर ज़िले की पहचान है. ये पहचान सीधे-सीधे जुड़ी है दारुल उलूम से. पिछले डेढ़ सौ साल में दारुल उलूम दुनिया भर में इस्लामी शिक्षा के सबसे केन्द्रों में से एक बनकर उभरा है. देवबंद शहर और दारुल उलूम का चोली-दामन का साथ है. ये दोनों नाम एक ही सांस में लिए जाते हैं. दारुल उलूम की स्थापना 1866 में हुई थी.
इस मदरसे की स्थापना की कहानी अंग्रेजों के खिलाफ़ 1857 में हुई आज़ादी की पहली लड़ाई से जुड़ी है. अंग्रेजों के ज़ुल्म से बचने में कामयाब हुए मुस्लिम विद्वानों ने इस्लामी शिक्षा के लिए इस मदरसे की स्थापना की थी.
फ़तवों से सुर्खियों में बना रहता है देवबंद
दारुल उलूम देवबंद फतवा को लेकर अक्सर सुर्खियों में रहता है अक्सर सुनाई देने वाले फ़तवों के पीछे दारुल उलूम देवबन्द के मुफ़्तियों के नाम सामने आता है. दारुल उलूम देवबन्द का दुनिया भर के मुस्लिम समुदाय के लिए अपना महत्व है. भारतीय मुसलमानों पर असर डालने वाले दारुल उलूम को स्थानीय लोग बहुत ही इज़्ज़त की नज़र से देखते हैं. फिर वो चाहे मुसलमान हों या हिन्दू. दुनिया भर के मुसलमान यहां इस्लामी शिक्षा ग्रहण करने आते हैं. और इस्लामी रीति रिवाज़ों के बारे में अपने सवाल पूछते हैं इन सवालों के जवाब ही फ़तवे के तौर पर सामने आते हैं.
दारुल उलूम के अब तक मोहतमिम (कुलपति) मोहतमिम कार्यकाल
हाजी मोहम्मद आबिद 10 वर्ष
मौलाना रफीउद्दीन 19 वर्ष
हाजी फजल हक 10 वर्ष
मौलाना मुनीर नौमानी डेढ़ वर्ष
मौलाना हाफिज मोहम्मद अहमद 34 वर्ष
मौलाना हबीबुर्रहमान उस्मानी सवा साल
मौलाना कारी मोहम्मद तैयब साहब 52 वर्ष
मौलाना मरगूबुर्रहमान बिजनौरी 32 वर्ष
मौलाना गुलाम मोहम्मद वस्तानवी सात माह
मुफ्ती अबुल कासिम नौमानी वर्तमान मोहतमिम
दीन की रोशनी से दुनिया हो रही मुनव्वर
दारुल उलूम ने स्थापना से लेकर आज तक दीन की रोशनी से पूरी दुनिया को मुनव्वर करने का काम किया है। संस्थापकों की रहनुमाई, शूरा सदस्यों की कयादत, उलमा की कुर्बानियों और मुस्लिम जगत की अकीदत व मोहब्बत से संस्था ने आला मुकाम हासिल किया है।
मुफ्ती अबुल कासिम नौमानी (मोहतमिम, दारुल उलूम देवबंद)