सियाचिन, दुनिया के सबसे ख़तरनाक युद्धस्थल में भारतीय सेना के पराक्रम की कहानी….

रूस के टुंड्रा को दुनिया का सबसे ख़तरनाक युद्धस्थल माना जाता है.

1942 के जाड़े के मौसम में स्टालिनग्राड में रूसी सेना के हाथ हिटलर की सेना की हार ने दूसरे विश्व युद्ध का रुख़ ही बदल दिया था.

वर्ष 1948 में बर्फ़ से ढ़के स्कर्दू और गिलगित में पाकिस्तानी कबाइलियों के ख़िलाफ़ मेजर जनरल थिमैय्या की 19 इंफ़्रैन्ट्री डिविजन ने जिस तरह लोहा लिया था वो भी साहस और जीवट की सबसे बड़ी मिसाल है.

लेकिन ये सब लड़ाइयाँ सियाचिन में पिछले 36 साल से चल रहे भारत पाकिस्तान संघर्ष के सामने कहीं नहीं टिकतीं. ये वो इलाक़ा है जहाँ लड़ना तो दूर एक साँस लेना भी बहुत बड़ा कारनामा है.

बात 13 अप्रैल, 1984 की है. समय था सुबह पाँच बजकर 30 मिनट. कैप्टन संजय कुलकर्णी और उनके साथी सैनिक को लिए हुए चीता हेलिकॉप्टर ने बेस कैंप से उड़ान भरी. उसके पीछे दो हेलिकॉप्टर और उड़े. दोपहर तक स्क्वॉर्डन लीडर सुरिंदर बैंस और रोहित राय ने इस तरह की 17 उड़ानें और भरीं. कैप्टन संजय कुलकर्णी के साथ एक जेसीओ और 27 भारतीय सैनिकों को सियाचिन में बिलाफ़ोन्ड ला के पास हेलिकॉप्टर से नीचे उतारा गया.

नितिन गोखले अपनी किताब ‘बियॉन्ड एन जे 9842 द सियाचिन सागा’ में लिखते हैं, ‘लेफ़्टिनेंट जनरल के पद से रिटायर हुए संजय कुलकर्णी ने मुझे बताया था, सुबह छह बजे सतह से कुछ फ़िट ऊपर मंडराते दो हेलिकॉप्टर्स से हममें से चार लोग नीचे कूदे थे.’

‘मुझे याद है कि मैंने नीचे फैली हुई बर्फ़ की गहराई और मज़बूती मापने के लिए पहले 25 किलो वज़न की आटे की एक बोरी नीचे गिराई थी. इससे हमें अंदाज़ा हो गया था कि वहाँ फैली बर्फ़ काफ़ी सख़्त है.’

‘वहाँ कूदने के बाद हमने वहाँ एक तरह का हैलिपैड सा बना दिया था ताकि हमारे बाद वहाँ दूसरे हेलिकॉप्टर सिर्फ़ आधे मिनट के लिए लैंड कर पाएं और फिर दूसरी खेप पर चले जाएं. उस दिन की कभी न भूलने वाली याद ये है कि उस दिन विज़िबिलिटी शून्य से भी नीचे थी और तापमान था माइनस 30 डिग्री.’

बिलाफ़ोन्ड ला में हेलिकॉप्टर्स से उतारे जाने के तीन घंटे के भीतर रेडियो ऑप्रेटर मंडल अत्याधिक ऊँचाई पर होने वाली बीमारी ‘हेप’ के शिकार हो गए थे.

हाँलाकि इससे भारतीय दल को एक तरह से फ़ायदा ही हुआ क्योंकि रेडियो ऑप्रेटर की अनुपस्थिति में पूरी रेडियो साइलेंस बरती गई और पाकिस्तानियों को वहाँ भारतीय सैनिक होने की भनक तक नहीं लग पाई.

बिलाफ़ोन्ड ला में उतरने के कुछ समय बाद ही कुलकर्णी और उनकी टीम का बाहरी दुनिया से संपर्क टूट गया था क्योंकि उन्हें एक भयावह बर्फ़ीले तूफ़ान ने घेर लिया था. हाल ही में छपी एक और पुस्तक ‘फ़ुल स्पैक्ट्रम इंडियाज़ वार्स 1972-2020′ में एयर वाइस मार्शल अर्जुन सुब्रमणियम लिखते हैं, ’16 अप्रैल को जब मौसम साफ़ हुआ तब जा कर कुछ और सैनिक और मेडिकल सहायता भेजी जा सकी. तब तक एक सैनिक की मौत हो चुकी थी और बचे हुए 27 भारतीय सैनिकों में से 21 सैनिक फ़्रॉस्ट बाइट यानी शीत दंश के शिकार हो गए थे.’

पाकिस्तान ने बर्फ़ पर रहने के ख़ास कपड़े जर्मनी से ख़रीदे

सियाचिन की लड़ाई पर सबसे दिलचस्प टिप्पणी ब्रूकिंग्स इंस्टिट्युशन के सीनियर फ़ेलो स्टीफ़ेन कोहेन की तरफ़ से आई है.

उनका कहना है कि ‘भारत और पाकिस्तान के बीच हो रहे इस संघर्ष की तुलना दो गंजे लोगों की लड़ाई से की जा सकती है जो एक कंघे के लिए लड़ रहे हैं.’

क़रीब 23000 फ़िट की ऊँचाई पर 75 किलोमीटर लंबे और क़रीब दस हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले सियाचिन ग्लेशियर का इलाक़ा इतना दुर्गम है कि भारत और पाकिस्तान दोनों ने 1972 तक इसकी सीमा के बारे में स्पष्टीकरण देने की ज़रूरत ही नहीं समझी थी.

भारत का माथा तब ठनका जब 70 के दशक में कुछ अमरीकी दस्तावेज़ों में एन जे 9842 से आगे कराकोरम रेंज के क्षेत्र को पाकिस्तानी इलाक़े के रूप में दिखाया जाने लगा.

भारत को ये भी पता चला कि पाकिस्तानी इस इलाक़े में पश्चिमी देशों के पर्वतारोहण दल भी भेज रहे हैं ताकि इस इलाक़े पर उनका दावा मज़बूत हो जाए.

80 के दशक में भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसी रॉ के जासूसों को पता चला कि पाकिस्तान जर्मनी से ऊँचाई पर रहने के लिए ख़ास तरह के कपड़े ख़रीद रहा है.

रॉ के प्रमुख रहे विक्रम सूद उस ज़माने में श्रीनगर में तैनात थे. उन्होंने ख़ुद 15 कोर के बादामी बाग़ मुख्यालय में जा कर वहाँ के कमाँडर लेफ़्टिनेंट जनरल पी एन हून को पाकिस्तान की ताज़ा गतिविधियों से अवगत कराया था. उनका मानना था कि पाकिस्तानी ये कपड़े पिकनिक करने के लिए नहीं ख़रीद रहे हैं.

बर्फ़ में धँसने की कहानी

लेफ़्टिनेंट कर्नल सागर पटवर्धन अपनी यूनिट 6 जाट के साथ 1993-94 में सियाचिन ग्लेशियर पर तैनात थे. एक बार जब वो लघुशंका के लिए अपने टेंट से बाहर निकले तो वो ताज़ी पड़ी बर्फ़ में कमर तक धँसते चले गए.

पटवर्धन बताते हैं, ”जब मैंने उस बर्फ़ के ढ़ेर से निकलने की कोशिश की तो मेरा ढ़ीला बँधा हुआ जूता एक छेद में फंस गया. जब मैंने बहुत मुश्किल से अपना पैर उस जूते में डाला तो वो बर्फ़ से भर चुका था. हाँलाकि मैं अपने तंबू से सिर्फ़ 10 मीटर दूर था, चिल्लाने का कोई फ़ायदा नहीं था क्योंकि हवा इतनी तेज़ी से चल रही थी कि मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुंच ही नहीं सकती थी. बहरहाल किसी तरह मैंने अपने फंसे हुए पैर को निकाला और गिरते पड़ते तंबू तक पहुँच कर मदद के लिए गुहार लगाई. मुझे तुरंत स्लीपिंग बैग में लिटाया गया और मुझे गर्म करने की कोशिश शुरू हो गई. पहली प्राथमिकता थी मेरे पैर को बचाना जो कि बर्फ़ के संपर्क में आ चुका था. मेरे साथियों ने स्टोव जला कर बर्फ़ पिघलानी शुरू कर दी. मैंने अपने गीले मोज़े उतारे और तेज़ी से अपने पैर मलने लगा. तीन घंटे बाद कहीं मैं दोबारा सामान्य हो सका.’

खाना बनाने में दिक्क़त

सियाचिन में तैनात 2 बिहार टुकड़ी के हवलदार राजीव कुमार ने नितिन गोखले को बताया कि ‘वहाँ सबसे बड़ी मुसीबत है खाना बनाना. चावल पकाने के लिए प्रेशर कुकर की 21 सीटियाँ लगानी पड़ती हैं.’

हाँलाकि सेना की तरफ़ से हर सैनिक को हाई प्रोटीन डायट दी जाती है लेकिन वहाँ कोई भी उसे नहीं खाता क्योंकि वहाँ भूख ही नहीं लगती. बहुत से सैनिकों की त्वचा का रंग काला पड़ जाता है. वहाँ तैनात अधिकतर सैनिक नींद न आने की शिकायत करते हैं. डाक्टरों का मानना है कि नींद न आने का मुख्य कारण ऑक्सीजन की कमी होना है.

आमतौर से सैनिकों को उनकी सियाचिन की तैनाती के दौरान आयातित गर्म मोज़ों के नौ जोड़े दिए जाते हैं. जो लोग उनका इस्तेमाल नहीं करते उन्हें काफ़ी तकलीफ़ उठानी पड़ती है.

फेफड़ों और दिमाग़ में पानी

कश्मीर में कमांडर रह चुके जनरल अता हसनैन याद करते हैं, ‘बाना चौकी पर बना बर्फ़ का बिस्तर एक तीन टायर के डिब्बे की बर्थ के बराबर रहा होगा.जिसके ऊपर वहाँ पर तैनात एकमात्र सैनिक और उसका अफ़सर एक दूसरे के ऊपर पैर रख कर सोते थे. जवान के ऊपर पैर रखने की पहली बारी अफ़सर की होती थी. थोड़ी देर बाद जवान अपने अफ़सर से कहता था. साहब अब बहुत हो गया. अब ज़्यादा वज़न हो रहा है. अब थोड़ी देर के लिए मैं पाँव ऊपर रखता हूँ.’

सियाचिन ग्लेशियर पर मानव शरीर को कम ऑक्सीजन, बेइंतहा ठंड, अल्ट्रा वॉयलेट रेडिएशन के अलावा बहुत कम आर्द्रता का सामना करना पड़ता है. इसके अलावा लंबे समय तक अलग-थलग रहना, हमेशा टिन बंद खाने पर निर्भर रहना, साफ़ पीने का पानी मिलने में दिक्कत, बिजली के बिना अस्थायी तंबुओं में रहना और हमेशा दुश्मन के हमले का डर बने रहना भारतीय सैनिकों का बहुत बड़ा इम्तेहान लेते हैं.

सियाचिन में अब भी मौतें होती हैं लेकिन इनमें से अधिक्तर मौतें अब दुर्घटनावश ही होती हैं. सियाचिन से वापस लौटने के बाद सैनिकों को सबसे अधिक शिकायत होती है वज़न कम होना, बहुत अधिक नींद आना, चीज़ों को भूलना और यौन शक्ति में कमी आना. एक अनुमान के अनुसार भारत सरकार दुनिया के सबसे ऊँचे युद्ध क्षेत्र सियाचिन के मोर्चे पर रोज़ 6 करोड़ यानी हर साल 2190 करोड़ रुपए ख़र्च करती है. वहाँ पर भारत और पाकिस्तान दोनों ने अपने करीब 5000 सैनिक तैनात कर रखे हैं.

भारत ने इन सैनिकों के लिए विशेष कपड़ों और पर्वतारोही उपकरणों के लिए अब तक 7500 करोड़ रुपए ख़र्च किए हैं. सियाचिन की तैनाती के दौरान हर सैनिक को दी जाने वाली किट का मूल्य औसतन एक लाख रुपए होता है. उसमें से 28000 रुपए ख़ास कपड़ो, 13000 रुपए विशेष स्लीपिंग बैग, 14000 रुपए दस्तानों और 12500 रुपए जूतों के एक जोड़े पर ख़र्च होते हैं.

1984 से ले कर अब तक करीब 869 भारतीय सैनिक सियाचिन में अपने प्राणों की आहुति दे चुके हैं जो कि कारगिल युद्ध में मारे गए सैनिकों की संख्या से कहीं अधिक है. इनमें से 97 फ़ीसदी सैनिक मौसम की मार की वजह से मारे गए हैं न कि पाकिस्तान के साथ लड़ाई में.

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