हरिद्वार हाईवे पर, जहां हर साल हजारों कांवड़िये भगवान शिव के नाम पर पदयात्रा करते हैं, वहीं एक छोटा सा ढाबा था — “बालकनाथ ढाबा”, जिसे चलाकर साधना पवार अपने परिवार का पेट पालती थीं।
हर दिन की तरह वह दिन भी आम था। कुछ कांवड़िये ढाबे पर खाना खाने के लिए रुके। गलती से खाने में प्याज़ पड़ गया — और बस यहीं से साधना जी की दुनिया उलट गई।
कांवड़ियों की भीड़ हुई बेकाबू
प्याज़ का ज़िक्र होते ही, कांवड़ियों की भीड़ भड़क गई। साधना पवार हाथ जोड़कर माफ़ी मांगती रहीं। वह बार-बार कहती रहीं कि यह गलती से हुआ, जानबूझकर नहीं। मगर धर्म की आड़ में आई भीड़ के पास न सुनने की फुर्सत थी, न इंसानियत की जगह।
भीड़ ने न सिर्फ ढाबा तोड़ा, बल्कि उनके नौकर का पैर भी तोड़ दिया।
गल्ले में जो थोड़े बहुत पैसे थे — वह भी लूट लिए गए।
कैमरे और CCTV तक फोड़ डाले गए — ताकि कोई सबूत ही न बचे।
अब सिर्फ राख बची है…
जहां कभी गरम-गरम रोटियाँ बनती थीं, चूल्हा जलता था, ग्राहकों की आवाजाही होती थी — आज वहां सिर्फ राख, टूटी दीवारें और गहराता सन्नाटा है।
साधना जी की आंखों में अब सिर्फ आंसू हैं और एक सवाल:
“क्या आस्था इतनी बेरहम हो सकती है?”
प्रशासन चुप… पुलिस गायब
घटना को कई घंटे बीत चुके हैं। न कोई FIR दर्ज हुई, न किसी को गिरफ्तार किया गया।
प्रशासन मौन है।
पुलिस मौके से नदारद है।
बाकी दुकानदारों के चेहरों पर साफ़ डर दिखता है। कोई कुछ कहने को तैयार नहीं — क्योंकि अगला नंबर उनका भी हो सकता है।
“क्या आस्था इतनी बेरहम हो सकती है?”
सवाल सिर्फ प्याज़ या एक ढाबे का नहीं है।
सवाल है — क्या धार्मिक यात्रा के नाम पर कानून को कुचला जा सकता है?
क्या आस्था इतनी नाजुक है कि प्याज़ देखते ही हिंसक हो जाती है?
या फिर अब कांवड़ यात्रा ‘श्रद्धा’ से हटकर ‘शक्ति प्रदर्शन’ का माध्यम बनती जा रही है?
“लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में…”
“यहां सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है!”
कहां हैं वो लोग जो कहते थे – ‘सबका साथ, सबका विकास’?
क्या साधना पवार जैसी महिलाओं को अब रोज़ी-रोटी के लिए माफ़ी भी मांगनी पड़ेगी — और फिर भी उनके सपने राख में तब्दील कर दिए जाएंगे?
कांवड़ यात्रा को लेकर अब सवाल पूछने का समय आ गया है —
वरना कल को किसी और की बारी होगी
रिपोर्ट : कृष्णा त्यागी
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