संजीव सिंह का बयान “यह भारत की वीर भूमि हैं, यहां पर वीर और वीरांगनाऐं लेते है जन्म….

भारत – चीन 1962 युद्ध में साड़ी पहने हुई भारतीय होमगार्ड महिलाओं ने राइफल्स उठाकर दिया था साहसिक योगदान

यूपी। राष्ट्रीय नेता, इंडियन नेशनल कांग्रेस एआईसीसी पर्यवेक्षक प्रभारी, बिहार झारखंड उत्तर प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट ऑफ इंडिया, सदस्य इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ ज्यूरिस्ट्स सचिव, कांग्रेस किसान एवं औद्योगिक प्रकोष्ठ, कानूनी सलाहकार सदस्य, चुनाव प्रचार समिति बिहार झारखंड उत्तर प्रदेश पश्चिम बंगाल और आसाम एवं लोकसभा चुनाव 2024 में प्रधानमंत्री पद के दावेदार ठाकुर संजीव कुमार सिंह ने कहा कि भारत – चीन सन 1962 युद्ध में खादी साड़ियाँ पहने भारतीय होमगार्ड की साहसी महिलाओं ने संकट के समय में राइफल्स उठाई और शक्तिशाली पीएलए का सामना करने का महत्वपूर्ण फ़ैसला लिया और भारत का गौरवशाली इतिहास लिखने चल पड़ीं और युद्ध विराम तक लड़ाई में शामिल रहीं और महत्वपूर्ण योगदान दिया था। इस दौरान मातृशक्ति ने अपने साहस के बल पर विश्व को ये संदेश दिया कि अगर देश में युद्ध की स्थिति हो तो महिलाएँ भी पुरुषों से कम नहीं। भारत की साहसी नारी शक्ति को सैल्यूट है। यह भारत की वीर भूमि है, यहां पर वीर और वीरांगनाऐं जन्म लेते हैं। नारी तू नारायणी नमोस्तुते। भारत-चीन १९६२ युद्ध में जब भारतीय सेना ने चीन से एक अपना राज्य गँवा दिया था। तब साड़ियाँ पहने – भारतीय होमगार्ड महिलाओं ने राइफल्स उठाई और शक्तिशाली पीएलए का सामना करने का महत्वपूर्ण फ़ैसला किया और खादी साड़ियों में साहसी लड़कियाँ हाथ में बंदूक़ लेकर भारत चीन का गौरवशाली इतिहास लिखने चल पड़ीं। तेज़पुर में भारतीय होमगार्ड की इन लड़कियों ने बंदूक़ें उठाई। चीन की सेना का सामना करने का निर्णय लिया और युद्ध विराम तक लड़ाई में शामिल रहीं। चीन द्वारा धोखे से हुए हमले के बाद जवानों में चीन की जो दहशत हो गई थी कि ये लोग तो सुपर मैन हैं, और भारतीय इनका मुकाबला नहीं कर सकते, वो हमेशा के लिए जाती रही और भारत के सिर्फ़ 75 जवानों ने 300 चीनियों को चुन चुन मार कर ये बता दिया कि कम संसाधन होने के बाद भी वीरता और साहस में हम किसी से कम नहीं हैं। पूरे विश्व में भारतीय सेना की अच्छी इमेज़ बनी। “जब चीन पर भारत पड़ा था लड़ाई में भारी” डोकलाम पर ढाई महीनों तक चले गतिरोध के दौरान चीनियों ने बार-बार भारत को याद दिलाया कि 1962 में चीन के सामने भारतीय सैनिक कम थे, लेकिन चीन के सरकारी मीडिया ने कभी भी पाँच साल बाद 1967 में नाथु ला में हुई उस घटना का ज़िक्र नहीं किया है जिसमें उसके 300 से अधिक सैनिक मारे गए थे जबकि भारत को सिर्फ़ 65 सैनिकों का नुक़सान उठाना पड़ा था।

श्री सिंह ने बताया कि नाथू ला को लेकर भारत-चीन में क्या है विवाद? 1962 की लड़ाई के बाद भारत और चीन दोनों ने एक दूसरे के यहाँ से अपने राजदूत वापस बुला लिए थे। दोनों राजधानियों में एक छोटा मिशन ज़रूर काम कर रहा था। अचानक चीन ने आरोप लगाया कि भारतीय मिशन में काम कर रहे दो कर्मचारी भारत के लिए जासूसी कर रहे हैं। उन्होंने इन दो लोगों को तुरंत अपने यहाँ से निष्कासित कर दिया। वो यहीं पर नहीं रुके। वहाँ की पुलिस और सुरक्षाबलों नें भारत के दूतावास को चारों तरफ़ से घेर लिया और उसके अंदर और बाहर जाने वाले लोगों पर रोक लगा दी। भारत ने भी चीन के साथ यही सलूक किया। ये कार्रवाई तीन जुलाई, 1967 को शुरू हुई और अगस्त में जाकर दोनों देश एक दूसरे के दूतावासों की घेराबंदी तोड़ने के लिए राज़ी हुए। उन्हीं दिनों चीन ने शिकायत की कि भारतीय सैनिक उनकी भेड़ों के झुंड को भारत में हांककर ले गए हैं। उस समय विपक्ष की एक पार्टी भारतीय जनसंघ ने इसका अजीबो-ग़रीब ढंग से विरोध करने का फ़ैसला किया। इससे पहले 1965 के भारत पाकिस्तान युद्ध में जब भारत पाकिस्तान पर भारी पड़ने लगा तो पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खाँ गुप्त रूप से चीन गए और उन्होंने चीन से अनुरोध किया कि पाकिस्तान पर दबाव हटाने के लिए भारत पर सैनिक दबाव बनाए। चीन ने पाकिस्तान की मदद करने के लिए भारत को एक तरह से अल्टीमेटम दिया कि वो सिक्किम की सीमा पर नाथु ला और जेलेप ला की सीमा चौकियों को खाली कर दे। इलाके में तनाव कम करने के लिए भारतीय सैनिक अधिकारियों ने तय किया कि वो नाथु ला से सेबु ला तक भारत चीन सीमा को डिमार्केट करने के लिए तार की एक बाड़ लगाएंगे। 11 सितंबर की सुबह 70 फ़ील्ड कंपनी के इंजीनियर्स और 18 राजपूत के जवानों ने बाड़ लगानी शुरू कर दी, जबकि 2 ग्रेनेडियर्स और सेबु ला पर आर्टिलरी ऑब्ज़रवेशन पोस्ट से कहा गया कि वो किसी अप्रिय घटना से निपटने के लिए सावधान रहें। “भारतीय सेना की इमेज़” : चीन द्वारा धोखे से हुए हमले के बाद जवानों में चीन की जो दहशत हो गई थी कि ये लोग तो सुपर मैन हैं और भारतीय इनका मुकाबला नहीं कर सकते, वो हमेशा के लिए जाती रही और भारत के सिर्फ़ 75 जवानों ने 300 चीनियों को चुन चुन मार कर ये बता दिया कि कम संसाधन होने के बाद भी वीरता और साहस में हम किसी से कम नहीं हैं। 1962 का ख़ौफ़ निकलकर भारत के कड़े प्रतिरोध का इतना असर हुआ कि चीन ने भारत को यहाँ तक धमकी दे दी कि वो उसके ख़िलाफ़ अपनी वायु सेना का इस्तेमाल करेगा। लेकिन भारत पर इस धमकी का कोई असर नहीं हुआ। इतना ही नहीं 15 दिनों बाद 1 अक्तूबर 1967 को सिक्किम में ही एक और जगह चो ला में भारत और चीन के सैनिकों के बीच एक और भिड़ंत हुई। इसमें भी भारतीय सैनिकों ने चीन का ज़बरदस्त मुकाबला किया और उनके सैनिकों को तीन किलोमीटर अंदर ‘काम बैरेक्स’ तक ढकेल दिया।”1962 की लड़ाई में चीन के 740 सैनिक मारे गए थे। ये लड़ाई करीब एक महीने चली थी और इसका क्षेत्र लद्दाख़ से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक फैला हुआ था। अगर हम माने कि 1967 में मात्र तीन दिनों में चीनियों को 300 सैनिकों से हाथ धोना पड़ा, ये बहुत बड़ी संख्या थी। इस लड़ाई के बाद काफ़ी हद तक 1962 का ख़ौफ़ निकल गया। भारतीय सैनिकों को पहली बार लगा कि चीनी भी हमारी तरह हैं और वो भी पिट सकते हैं और हार सकते हैं। देश की सेना और साहसी महिलाओं ने दिखाया कि अगर देश में युद्ध की स्थिति हो तो महिलाएँ भी पुरुषों से कम नहीं। किंतु हमारे देश के इतिहासकारों ने इस पराक्रम को हमारे पाठ्यक्रम में कोई स्थान नहीं दिया।

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