अब भागवत को भी नहीं बख्शेंगे ये धर्म गुरु ?

सर संघ संचालक के 2024 के बयान की आलोचना आने वाले सालों के लिए एक नई व्यवस्था की तरफ इशारा है।

क्या भारत में राजनीतिक इच्छा शक्ति पर संतों की धार्मिक इच्छा हावी होने लगी है या आजकल भारत एक नए धार्मिक राजनीतिक ध्रुवीकरण की तरफ बढ़ रहा है। क्या आने वाले समय में धर्माचार्य ही भारत की राजनीति में तख्त शाही पर आसीन होंगे । मौजूदा हालात से तो यही प्रतीत होता है जैसा कि संघ सर संचालक श्री मोहन भागवत के भारत में हर मस्जिद में मंदिर ढूंढने या सर्व समाज में आपसी तालमाल से रहने सम्बंधित बयान के प्रतिक्रिया स्वरूप श्री राम भद्राचार्य वा अन्य संतों के बयान से स्पष्ट होता है कि राजनीतिक शक्ति केंद्र अब अस्तित्व विहीन हो कर साधु संत समाज पर केंद्रित होने की तरफ अग्रसर है। क्योंकि संतो ने मुखर अंदाज में श्री मोहन भागवत की सिर्फ मुखालिफत ही नहीं की बल्कि विरोध में उनके वक्तव्य को दुर्भाग्य पूर्ण कहा और कहा कि वह हिंदू धर्म के ठेकेदार नहीं है हिंदू धर्म की व्यवस्था हिंदू धर्माचार्य ही करेंगे। इससे प्रतीत होता है कि श्री मोहन भागवत जैसे लोगों का भी आज की और आगामी हिंदू समाज की व्यवस्था से कोई लेना देना नहीं होगा और इस परिपेक्ष में उन्हें अपने वक्तव्य पर शायद दुबारा विचार करना चाहिए। इस से दो बाते स्पष्ट हुई कि इस आगामी व्यवस्था में मोहन भागवत जैसे ताकतवर सर संघ संचालक को जिनको हिंदू प्रतीक जैसे व्यक्ति की उपाधि शायद प्राप्त है को भी बोलने की आजादी जैसे संविधान के प्रदत अधिकार से वंचित होना पड़ेगा। और नई आगामी व्यवस्था के खिलाफ कोई भी कुछ नहीं बोल सकेगा। तो शायद यह धार्मिक राज शाही की तरफ एक इशारा है। दूसरी बात भारत की राजनीति आने वाले दिनों में हिंदू धर्माचार्यों के अधीन हो जाएगी जो भारतीय समाज को तोड़ने के लिए एक भयावह कदम होगा।

संत समाज चाहता है कि शीघ्र भारत एक हिंदू राष्ट्र बन जाए मगर राजनीति की भी अपनी कुछ मजबूरियां हैं। संविधान को बदलना कोई आसान काम तो नहीं है। हिंदू राष्ट्र बनने से जो सामाजिक ताना बाना छिन भिन्न होगा उसकी परिकल्पना भी अभी नहीं की जा सकती। हिंदू राष्ट्र की मुख्य धारणा वर्ण व्यवस्था पर आधारित होगी क्योंकि हिंदू धर्म व्यवस्था ही यही है। उसमें हजारों वर्षों से चली आ रही भेदभाव की नीति, स्वर्ण जाति, अछूत जाति और इस तरह की बीमारियों से ग्रस्त फिर सामाजिक व्यवस्था भारत में फिर क़ायम की जाएगी। क्योंकि यह व्यवस्था तो आज भी ज्यों की त्यों हिंदू समाज में मौजूद है। धार्मिक एतबार से भले ही कितने दावे करें कुछ भी नहीं बदला है। अतीत में इस गाली को राजनीतिक तौर से कुछ बदलने की कोशिश होती है परन्तु धर्म का आडंबर हमेशा सामने आ जाता है। और आज भी भी हिंदू समाज में तोड़ने की व्यवस्था है मगर जोड़ने का दिखावा किया जा रहा हैं समाज तो आज भी शूद्र समाज को उसी निगाह से देखता है और आज भी यह कहावत प्रासंगिक है। कि ढोल, गवार, शूद्र, पशु नारी ये सब ताड़न के अधिकारी। क्या अब हिंदू धार्मिक व्यवस्था का अभिप्राय हिंदू धर्म वर्चस्वता होगी जिसमें बाकी किसी का समावेश नहीं होगा और धर्म व्यवस्था लोकतंत्र की बजाए हिंदू धर्माचार्यों की राज शाही होगी।

खुर्शीद अहमद सिद्दीकी 37 प्रीति एनक्लेव माजरा देहरादून उत्तराखंड।

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