बसंत ऋतु के मौसम में फूलों की भीनी भीनी खुशबू और पछुआ हवाओं के झोको के बीच में होली का त्यौहार आता है सर्दी के बाद हल्की सी गर्मी शुरू हो जाती है इस रंगों के त्यौहार को होली के होलियारे बड़ी शालीनता से मनाते हैं मगर आज के हिंदुस्तान ने करवट बदली हैं और अब होली का हुल्यारा तीन वर्गों में तकसीम हो गया है ।
पहला वर्ग जो बजुर्गो का होता हैं उनके पास घर पर मिलने के लिए और टीका लगाने के लिए उनके रिश्तेदार और दोस्त आते हैं माथे पर टिका लगाते हैं और उनका अभिनंदन करते हैं और आशीर्वाद लेते हैं । इसके अतिरिक्त दूसरा वर्ग के होलियारे अपने घर पर ही अपने परिवार के संग और दोस्तों के संग होली खेलना पसंद करते हैं नए-नए पकवान बनवाते हैं ठंडाई बनती हैं उसके अलावा मध मदिरा का भी प्रयोग करते हैं मगर सुकून से अपने घर में होली खेल कर अपनी खुशियों को बढ़ाते हैं और परिवार के साथ ही होली खेल परंपरा का निर्वाह करते हैं और सुख आनंद के साथ इस पर्व को मनाते हैं। तीसरा वर्ग ऐसे उद्दंडिओं का होता हैं जिसमें नौजवानों, बच्चों और अधेड़ उम्र के लोगों की एक भीड़ होती है जो सड़क पर निकल कर होली खेलने और हुड़दंग मचाने में अपनी शान समझते हैं ढोल नगाड़े बजाते हुए होली का जलूस निकालते हैं नशे में शराबोर नाच गाना, डांस करते झुण्डों में निकलते हैं हाय हल्ले मचाते हुए आगे बढ़ते हैं जैसे कि मदहोश गजानंद इधर रंग उधर भंग जो मिला उसको सिंथेटिक रंगों से, कालिख से और अक्सर ऐसे गुलाल से शराबोर कर देते हैं कि आम हिंदू भी इससे परहेज करता हैं महिलाओं के रंग लगाने के नाम पर क्या क्या होता हैं इसको बताने की जरूरत नहीं है क्योंकि इन सब आयोजनों में सबसे ज्यादा उत्पीड़न महिला समाज का ही होता है और क्या प्रहलाद के यहीं आदर्श थे कि हिरणाकश्यप के झूठे खुदाई दावे को नकार दिया क्या होलिका दहन की यही परंपरा है कि शराब कबाब और भंग ठंडाई में मस्त होकर उस आदर्श को भूल जाएं और नशे में चूर यह लोग पारंपरिक होली कम खेलते हैं मगर हुड़दंग ज्यादा मचाते हैं यह किस प्रकार की होली है यह प्रहलाद के आदर्श तो नहीं मगर हिरणाकश्यप की उदंडता जरूर हो सकती हैं जिसमें इंसान इंसान को देखकर भयभीत होता है रंग के नाम पर सिंथेटिक रंग, काला तेल और पता नहीं क्या-क्या लगाया जाता हैं कभी-कभी दुश्मनी में ऐसे रंग भी लगा देते हैं जो त्वचा को बहुत नुकसान देती है लड़कियों के साथ पूरी अश्लीलता की जाती है और इस तरह होली मना कर यह तीसरे दर्जे का होलियारा ग्रुप अपने आप को बड़ा गौरांवित महसूस करता हैं कि उन्होंने होली का असल हक अदा किया और उनकी हिफाजत के लिए मानो पूरा शासन प्रशासन पूरे भारत वर्ष में ऐसा नतमस्तक हो जाता हैं कि मानो यह हुड़दंगी परंपरा ही असल होली है। इसके लिए मुसलमानों के धर्म गुरु भी जुम्मे की नमाज का टाइम बदल देते हैं ताकि कोई अप्रिय घटना घटित न हो जाए। सरकार का यह तर्क की होली साल में एक बार आती हैं और जुम्मा हर हफ्ते आता रहता हैं और नमाज का टाइम आगे पीछे किया जा सकता है या नमाज घरों में पढ़ी जा सकती हैं और अगर किसी को रंगों से परहेज़ है तो वह घर से न निकले एक तरह से हुड़दंगी मानसिकता को बढ़ावा देना है जिसके दूरगामी परिणाम हिंदू समाज के सामने ही आएंगे मगर तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। क्योंकि जब धार्मिक मर्यादा खत्म होती हैं तो सामाजिक लोक लाज भी खत्म हो जाती हैं क्या होली जैसा त्यौहार बगैर नशे के हो सकता है अब अगर यही धार्मिक मान्यता और मर्यादा है कि होली जैसे पर्व पर राह चलते लोगों को तकलीफ पहुचानी है मस्जिदों और दाढ़ी टोपी वालों को नुकसान पहुंचाना है तो होली फिर भाई चारे का त्यौहार किस तरह से है। और इस सब उपद्रवों के बीच प्रशासन अगर तमाशाई बन जाए तो तो फिर भारत की संस्कृति में सौहार्द कहां से आएगा। सड़क पर तांडव करने के लिए तमाम तरह के सुरक्षा और इंतजाम करना सरकार की मजबूरी हो सकती हैं मगर धर्माचार्यों की नहीं। उनको आगे बढ़कर इस तरह के सड़क तांडव के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए। ताकि समाज के अंदर किसी प्रकार का वैमनस्य ना फैले ।
जबकि होली में रंगों का रूप देने में मुगल बादशाहों का बड़ा योगदान है क्योंकि उन्होंने ही अपने दीवानों में फूलों से होली खेल इस परंपरा की शुरूआत की थी और जिला बख्शी थी परंतु आज समाज के अंदर इतनी कटुता पैदा हो गई है कि मुगलों की परंपरा को जिसमें भाईचारा और रंगों की बरसात हुआ करती थी आपसी सौहार्द की एक मिसाल हुआ करती थी नफरत और हिंसा में तब्दील कर दिया गया क्या यही आज का भारत है और यही आज की होली की परंपरा है इस पर विचार करने की आवश्यकता है
खुर्शीद अहमद सिद्दीकी,
37, प्रीति एनक्लेव माजरा देहरादून उत्तराखंड।