उत्तराखंड में बड़बोले बयान वीरों का जलवा! बिना आधार के कुछ भी……

कुछ औदेहदार शायद अपने आकाओं को खुश करने के चक्कर में सारी हक़ीक़त भूल जाते हैं उन्हें यह भी याद नहीं रहता कि भारत की आज़ादी के संग्राम में हिंदुस्तान के मदरसों और मदरसों से जुड़े लोगों ने क्या क्या कुर्बानी दी थी और इस मुल्क के लिए उनकी वफादारी और शहादातो की मिसाल नहीं मिलती और आज भी उनकी कुर्बानी हिंदुस्तान के मदरसे के तलबा के लिए मशले राह हैं अगर मौलाना हुसैन अहमद माल्टा की काल कोठरी से भी अग्रेजो से इस मुल्क को आज़ाद कराने के लिए पुरअज्म थे तो उनके साथ यह कुरान करीम की बरकत थी और मदरसे का ही दर्स था कि अंग्रेजो की किसी भी पेशकश को मंजूर नहीं किया। अल्लामा फजल हक खैराबादी जिन्होंने अंग्रेजी हकूमत के खिलाफ फतवा दिया और अंग्रेज़ी हकूमत की किसी भी इमा पर समझौता नहीं किया था । शामली के मैदान में क्या बेशुमार उलमाओ ने इस मुल्क के लिए कुर्बानी नही दी और यह सब कुरान और मदरसों के दरस की बिना पर हुआ कि लोग मुल्क की आज़ादी के लिए जान और मॉल लुटवाने पर आमादा हो गए थे। आज भी मदरसों में वही दरसी तालीम है आज भी मदरसों में मुल्क की वफाशारी पढ़ाई जाती हैं। अगर कल के आज़ादी के मतवाले यह मदरसे वाले देश की मुख्य धारा में रह कर इस देश को आज़ाद कराने के लिए कुर्बानी दे रहे थे तो आज उनकी दरस में ऐसा क्या बदल गया कि उत्तराखंड के मदरसा और वक्फ बोर्ड को इन मदरसे के तालिब इल्मो को मुख्य धारा में लाने की जरूरत पड़ गई ।

उत्तराखंड के मदरसों की वफाशारी में तो कुछ नही बदला मगर इन विभागों के पदाधिकारियो की राजनीतिक में महत्वकांशा जरूर बदल गई है जो सरकार को सच्चाई से रू बरु करने की बजाय नित नए नए आयाम परिभाषित कर रहें हैं। मदरसों में सिर्फ 3 से 4 प्रतिशत बच्चे पढ़ते हैं और वो भी अक्सर गरीब होते हैं जो स्कूल का व्यय बर्दाश्त नहीं कर सकते और मुस्लिम समाज उनकी इस जरूरत को आपसी चंदा देकर पूरा करता है मगर बाकी 96 प्रतिशत में स्कूल से ड्रॉप आउट सबसे ज्यादा है और यह सब बगैर शिक्षा के कितना मुख्य धारा में रहते हैं यह एक बड़ा सवाल है क्या मदरसों के अलावा यह बाकी बच्चे क्या मुस्लिम बच्चे नही है जिनको भी समाज में इज्जत की जिंदगी पाने का हक है और उत्तराखंड वक्फ बोर्ड एवं उत्तराखंड मदरसा बोर्ड की जिम्मेदारी कि उनको भी उच्च शिक्षा मिले और उनके भी एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में कंप्यूटर हो । मगर इस तरफ किसी भी मुस्लिम बोर्ड का ध्यान नही है इन दोनो बोर्ड के पदाधिकारियों की संताने कितने मदरसों में पढ़ रही और संस्कृत और वेद का ज्ञान प्राप्त कर रही है एक बड़ा सवाल है?

“हाथी के दांत दिखाने के और खाने के और”

अब उत्तराखंड मदरसा बोर्ड के एक पदाधिकारी इस महत्वकांशा की दौड़ में और आगे बढ़ जाते हैं जबकि खुद अपने को मुफ्ती लिखते हैं कहते हैं।

कि “उत्तराखंड देव भूमि यानी फरिश्तों की ज़मीन।”

अब इस वक्तव्य के साथ साथ उनके पास दलील भी होनी चाहिए तो दोनो धर्मों के ग्रन्थों से इस बात की पुष्टि भी होनी चाहिए वैसे तो उनका शायद क़ुरान के भी विद्वान होने का उनका अपना दावा होगा और मदरसों में वेद और संस्कृत पढ़ने के लिए वो मदरसे वाले को प्रेरित कर रहे हैं तो उनके पास दोनो धर्मों के ज्ञान का भंडार होगा तो अपने वक्तव्य के लिए दोनो धर्मों की किताबों से उनके पास दलील भी होनी चाहिए और वो भी दोनो धर्मों के विद्वानों से तस्दीक शुदा होनी चाहिए तो उनकी बात काबिल कबूल होगी और अगर नही है तो उनको अपने पद से त्यागपत्र देकर उत्तराखंड के दोनो धर्मों के मानने वालो से माफ़ी मांगनी चाहिए। चूंकि उनका वक्तव्य शायद दोनो धर्मो की आस्था के भी अनुकूल नहीं है।

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