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कुछ तो है जो सरकार छुपा रही है?UCC को लेकर सटीक विश्लेषण…..

एक देश, एक कानून, फिर डर किस बात का ।

कहने में बात बहुत अच्छी, मगर करने में असमंजस ही असमंजस। डर तो नही लगता पर शंका जरूर होती है।

आज तक समान नागरिक संहिता के कर्ण धार इस कानून का कोई मसौदा जनता के सामने नहीं रख पाए हैं जिनके लिए यह क़ानून बनाने की बात की जा रही है। अजीब बात है उत्तराखंड सरकार को सिर्फ अपने राज्य में समान नागरिक संहिता पर बात करने में एक साल से ज्यादा का समय लग गया मगर 22वे लॉ कमीशन ने पूरे भारत की राय को जानने के लिए सिर्फ 30 दिन का समय दिया वो भी बगैर किसी मसौदे के साथ। जनता को यह भी नही बताया कि वर्ष 2018 में 21वे लॉ कमीशन के अध्यक्ष, जस्टिस बी एस चौहान साहब ने यूनिफॉर्म सिविल कोड को भारतवर्ष के लिए गैर जरूरी और अवांछनीय कहकर अपनी रिपोर्ट दी थी। अब इन चार सालों में हमने संविधान की अपेक्षा के अनुसार नागरिकों के लिए क्या क्या समान किया है।

एक स्टडी के अनुसार हमारी देश की सारी संपदा 10 प्रति शत धनवानों के कब्जे में आती जा रही हैं क्या यह संविधान के आर्टिकल 38 के अनुरूप हैं। जो हमारी सरकारों को अनुच्छेद 44 के लिए कोशिश करने की होड़ लगी हुई हैं। बाज़ी केंद्र सरकार ले जाती ही या उत्तराखंड सरकार। यह आने वाला समय बतायेगा।

क्या वाकई इन आज़ादी के 75 सालो के बाद भी हमारी सरकारें समाज से असमानता, गरीबी, अशिक्षा वा समाजी निरंकुशता दूर कर पाए हैं आज भी एक दलित समाज का दूल्हा अपनी बारात में घोड़ी पर नही बैठ सकता है। आज भी औरतों को मासिक धर्म में अछूत बनाकर घर से बाहर निकाल दिया जाता है। आज भी औरतें अपने बच्चो को उनके पिता का नाम नहीं दे पा रही हैं। आज भी बगैर शादी न जाने कितनी बेटियां हवस की शिकार हो जाती है और लिव इन रिलेशनशिप में रहती है। और यह सब कुछ सदियों से होता आ रहा है इनके बेचारी औरतों लिए एक समान कानून ही हैं “उत्पीड़न” कुछ नही बदला हैं । आज भी बेटियां दहेज़ की बलि चढ़ती हैं। नौकरी के नाम पर शोषण, बलात्कार एवम हत्याएं आम हैं। क्या इनको बचाने के लिए कोई कानून नहीं होना चाहिए।

आज फिर उसी कानून को लागू करने की उद्घघोषणा की जा रही है और सरकार खामोश हैं। संविधान की प्रतियां जलाई जा रही हैं। हिंदू राष्ट्र के नई संविधान को लागू करने की उद्घघोषणा की जा रही हैं जिसमे मनुस्मृति का समावेश होगा क्या यह सब बगैर मौन सहमति के हो रहा है सबके सामने संविधान को बदलने की बात की जा रही है मगर हर जगह मौन ही मौन।

इन सब हालात में क्या इन समाजों को सोचने के लिए विवश होना पड़ेगा जो सदियों से इस दंश को सह रहे हैं। अभी उनके समझ में शायद यह गहराई नही आई हैं या उनके सामने कुछ और परोसा जा रहा है। सच्चाई तो यहीं प्रतीत होती है। वरना अब तक वो अपनी निंद्रा से बाहर आ जाते।

“कुछ तो हैं जिसकी पर्दा दारी है”

इसलिये समान नागरिक क़ानून का समझना जरूरी हैं कि इसका किस किस समाज पर क्या क्या असर होगा और दूरगामी भारतीय सामाजिक ताने बाने पर क्या प्रभाव आयेगा।

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