देहरादून (UK) से स्पेशल रिपोर्ट:अभिजीत शर्मा
गर्मी में नल ऐसे सूखे खड़े हैं जैसे बचपन में स्कूल के बाहर कटहल के पेड़ — देखो, छांव है पर फल नहीं!
लोग नल की टोंटी पकड़कर बैठे हैं, सोच रहे हैं — “आखिर कौन सा बटन दबाएँ कि पानी निकले?”
सरकारी दफ्तरों में मीटिंग्स हो रही हैं, चाय पानी तो खूब चल रहा है — बस जनता का पानी कहीं गायब है।
बड़े-बड़े पोस्टरों में विकास मुस्कुरा रहा है, और गलियों में जनता पसीना पोंछती हुई बुदबुदा रही है:
तीखे सवाल जनता के —
सरकारी योजनाएँ भी क्या इसी गर्मी में वाष्पित हो गईं?
विकास जी, क्या आप भी वॉटरलेस मोड में चले गए?
बजट का पानी बहा दिया, अब असली पानी कब मिलेगा?
पक्की सड़क मिली, पर प्यासे गड्ढों के साथ — ये कौन सा स्मार्ट प्लान है?
घोषणाएँ भरपेट मिल रही हैं, पानी आधा मग भी नहीं — क्या यही आत्मनिर्भरता है?
और जनता का आखिरी सवाल:
“गर्मी तो हर साल आएगी, पर पानी देने की आदत सरकार कब डालेगी? आखिर कब तक?”
अब देहरादून में नया नारा बन गया है:
“प्यासे हैं, शर्मिंदा हैं, विकास के भरोसे ज़िंदा हैं!”