धर्म स्वतंत्रता कानून या एक धर्म की विशेष स्वतन्त्रता?

उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता अधिनियम पर सवाल और समाज की चुप्पी

उत्तराखंड सरकार द्वारा वर्ष 2018 में लागू किया गया उत्तराखंड धर्म स्वतंत्रता अधिनियम अब एक बार फिर चर्चाओं में है। इस कानून का उद्देश्य था—धर्मांतरण पर रोक लगाना और धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा करना। लेकिन इसके प्रावधानों और व्याख्याओं को लेकर अब सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह कानून वास्तव में निष्पक्ष है या फिर किसी विशेष विचारधारा को संरक्षण देने का उपकरण बन चुका है?

कानून की प्रमुख व्याख्याएं

इस अधिनियम में “प्रलोभन”, “बल”, “धोखाधड़ी”, “अनुचित प्रभाव”, “जबरदस्ती” जैसे शब्दों को इस तरह परिभाषित किया गया है कि किसी भी धर्म परिवर्तन को आसानी से गैरकानूनी बताया जा सकता है, विशेषकर तब जब वह किसी मुस्लिम या मसीही व्यक्ति द्वारा किया गया हो।

उदाहरण के लिए, किसी स्कूल में दी गई मुफ्त शिक्षा, इलाज, सामाजिक सेवा या बेहतर जीवन का वादा भी “प्रलोभन” की श्रेणी में लाया जा सकता है। वहीं किसी व्यक्ति द्वारा मानसिक दबाव या सामाजिक बहिष्कार की धमकी भी “जबरदस्ती” मानी जा सकती है।

मुस्लिम और मसीही समाज पर प्रभाव

पिछले कुछ वर्षों में यह देखा गया है कि इस कानून का इस्तेमाल मुख्यतः मुस्लिम और मसीही समाज के खिलाफ किया जा रहा है।

यदि एक मुस्लिम युवक किसी हिंदू लड़की से शादी करता है, भले ही दोनों बालिग हों और उनकी शादी रजामंदी से हुई हो, तब भी उस पर “लव जिहाद” के तहत मुकदमा दर्ज कर दिया जाता है।

मसीही समाज द्वारा संचालित स्कूल, हॉस्पिटल और समाज सेवा के कार्य भी संदेह के घेरे में आ जाते हैं।

इसके विपरीत, यदि कोई हिंदू युवक किसी मुस्लिम लड़की से शादी करता है और बाद में वह लड़की ‘घर वापसी’ करती है, तो उसे धर्म परिवर्तन नहीं माना जाता।

समाज की चुप्पी और नुकसान

जब यह कानून 2018 में लागू हुआ और 2022 में इसमें संशोधन किया गया, तब दोनों समुदायों के नेताओं और बुद्धिजीवियों ने इस कानून की संवैधानिक समीक्षा की पहल नहीं की। शायद तब इसके दूरगामी परिणामों का अंदाज़ा नहीं था। आज जब मुसलमान और मसीही समाज के युवाओं के खिलाफ मुकदमे दर्ज हो रहे हैं और बेटियों को धर्म के नाम पर निशाना बनाया जा रहा है, तब जाकर यह प्रश्न खड़ा हुआ है—क्या यह कानून वास्तव में धर्म की स्वतंत्रता की रक्षा कर रहा है?

समाधान और समाज की ज़िम्मेदारी

अब समय आ गया है कि समाज सजग हो:

  1. संविधानिक चुनौती: इस कानून की वैधानिकता की न्यायालय में समीक्षा होनी चाहिए।
  2. समाज में संवाद: मुस्लिम और मसीही समाज को अपने युवाओं, विशेषकर महिलाओं से नियमित संवाद करना चाहिए।
  3. डिजिटल जागरूकता: सोशल मीडिया और मोबाइल के दुष्प्रभावों से युवाओं को आगाह करना ज़रूरी है।
  4. सहज विवाह प्रणाली: शादियों को आसान और इस्लामी या धार्मिक रीति से सुगम बनाया जाए ताकि गलत रास्तों पर जाने की नौबत न आए।

निष्कर्ष

धर्म स्वतंत्रता कानून यदि एक पक्ष को तो सुरक्षा दे और दूसरे को प्रताड़ित करे, तो यह किसी भी लोकतांत्रिक समाज के लिए खतरे की घंटी है। ‘लव जिहाद’ जैसे भ्रम फैलाकर यदि किसी समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है, तो यह न केवल असंवैधानिक है बल्कि सामाजिक विभाजन को बढ़ावा देने वाला भी है।

आज ज़रूरत है कि समाज एकजुट हो, समय रहते सही कदम उठाए और आने वाली पीढ़ी को सुरक्षित भविष्य दे

लेखक: खुर्शीद अहमद सिद्दीकी

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